तुम आज भी हो....
तुम आज भी हो गुमसुम से कहीं, खामोश कहीं अंतर्मन की गहराई में सुबहों की अंगड़ाई में यादों की पुरवाई में तुम लाख नजर से दूर रहो पर मै कहता हूं तुम आज भी हो शायद तुमको ये लगता हो वो शख्स नहीं कोई अपना था वो सब एक झूठे वादे थे वो सब सब इक झूठा सपना था अरे हमसे पूछो सपनों की ये दुनिया कैसी होती है वक्त जिन्हें है छोड़ चला उन लमहो को ये सजोंती है मेरी सोच, मेरे हर शब्दों में मेरी कविता में, मेरी ग़ज़लों में एहसास कलम की स्याही में मै कहता हूं, तुम आज भी हो ये वक्त किसी का अपना नहीं आज मेरा नहीं तो ना ही सही तुमको लगता हो हार गया हूं सपनों को जिंदा मार गया हूं पर जान अभी भी है मुझमें पहचान अभी भी है मुझमें माना थोड़ा सा हूं खुद में पर थोड़ा सा तुम आज भी हो - सचिन शुक्ला (तन्हा)